Wednesday, 23 January 2013

प्रेम, विशुद्ध प्रेम,

प्रेम,
विशुद्ध प्रेम,
अपेक्षाओं से रहित,निःशर्त प्रेम 
आज तक अपरिभाषित है,मेरी समझ में
मैं  समझता हूँ,प्रेम अपरिभाषित ही रहे तो अच्छा ।
प्रेम को जिसने भी परिभाषित करने  की कोशिश की,विकृति आती गई ।
मैं  भी कोशिश नहीं कर रहा हूं
प्रेम परिभाषित नहीं किया जा सकता
बस जिया जा सकता है उससे भरे  रह कर।
महसूस किया जा सकता है, बताया नहीं जा सकता
गूंगे को गुड की तरह ,वो खा तो सकता है बता नही सकता।
मिठास से भर के भी,
हम में  से जितनो ने जिसे परिभाषित किया वो प्रेम था ही नहीं ।
वो और कुछ भी हो सकता है सिवाय प्रेम के ,
जैसे जंगल में खिले सुगन्धित फूल किसी का इन्तिज़ार नहीं करते,
सुगंध बिखेरने के लिए ,उसे सुगंध-पात्र की जरूरत नहीं है,
वह सुगंध से भरा है ,लुटाना उसकी प्रकृति है।
वैसे ही अगर हम प्रेम से भरे हैं तो उसे बिखेरना हमारी प्रकृति होनी चाहिए ,
चाहे प्रेम का पात्र  उपस्थित हो या ना हो,
बहता ही रहे हम में से,स्वतः,निः शर्त
चाहे बदले में कोई  कुछ भी दे ,प्रेम या तिरस्कार
क्यूंकि जहाँ प्रेम है कोई और भाव रह नही सकता ।
अन्य सभी भाव प्रेम की अनुपस्थिति मात्र हैं।
प्रेम ही एक मात्र  भाव है,पूरी प्रकृति में ।
प्रेम ही शाश्वत है,प्रेम ही उर्जा है ,जीवन है
                                गिरिराज भंडारी
       

No comments:

Post a Comment