छोड़िये पत्थरों को कहकशाँ न कीजिए
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लफ़्ज़ों में नहीं आयेंगे, बयाँ न कीजिए,
मेरी ख़ामोशी का यूँ दरमाँ न कीजिये।
पोशीदगी भी ज़रूरी है रिश्तेदारी में,
ऱाज महफिल में तो, अयाँ न कीजिये।
ये कैसी तकल्लुफ़ है, कैसी रवादारी है
मुझे मेरे घर में तो, मेहमाँ न कीजिये।
उनकी यादें मुश्किल से सोई हैं अभी,
कहीं भी जाइये, शोर यहाँ न कीजिये।
ज़ख्म पैरों के इस रास्ते से वाकिफ़ हैं,
छोड़िये,पत्थरों को कहकशाँ न कीजिए।
सफ़रे ज़िन्दगी की,ज़ईफ़ी ही मंज़िल है,
खींच तान कर ख़ुद को जवाँ न कीजिए।
ख़ूब हल्ला है अभी तूफान का, समंदर में,
कश्ती अभी साहिल से रवाँ न कीजिए।
गिरिराज भंडारी
दरमाँ=इलाज, रवादारी=शिष्टाचार
कहकशाँ=आकाशगंगा, ज़ईफ़ी=बुढापा
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