कब से खड़ा हूँ रास्ता भूले हुए
अपनी योजनाओं से हैं फूले हुए ,
दरअसल लंगड़े थे,वो लूले हुए।
अंधों की बस्ती में न जाने किस लिए,
कब से खड़ा हूँ रास्ता भूले हुए।
वो खेत,बागीचे,वो छाँव अमराई,
लुप्त सारे श्रावणी झूले हुए ।
माली से बचने,हर कली और फूल सब,
गुलाब की तरह से कटीले हुए।
कमज़ोर इरादे इधर पहले भी न थे ,
कुछ सोच के ये और हठीले हुए।
गिरिराज भंडारी
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