Tuesday 26 February 2013

मिलूँ तुमसे,कि तुम्हें याद करूं ?

है तवील  यादों का अलग  मज़ा                                                  
है जो  रू ब  रू  तो  अलग   नशा 
          मिलूँ तुमसे,कि तुम्हें  याद करूं  ?
ग़मे  हस्ती  है,    ग़में जाना भी
राहे पुर ख़तर है ,   जमाना भी 
          मैं किसके लिये फ़रियाद करूं ?
कभी नाराज हैं ,  मुस्कुराना भी
है कभी यकीं,     आजमाना भी
       क्या  खुद  पे  ही  मैं बेदाद  करूं ?
कभी  पेशो  पस में घिरा  है  तू
कभी  रिवायतों  से   डरा है  तू
        तू  कहाँ बंधी ?जो आजाद  करूं ?
                                गिरिराज भंडारी
     

Saturday 23 February 2013

हम हँसे, रो पड़ें, उनको इस से क्या

हम हँसे, रो पड़ें, उनको इस से क्या
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हम जियें या मरें उनको इससे क्या
हम हँसे, रो पड़ें, उनको इस से क्या

घर हमारा, दर हमारा,हम  हमारे हैं
तोड़ दें,फोड़  दें, उनको  इससे  क्या

हाथ मेरे, पैर मेरे, ये जिस्म मेरा है
काट  लें,नोच लें, उनको इससे क्या

खाना मेरा, पेट मेरा , पानी  मेरा है
खा लें कि छोड़ दें उनको इससे क्या

जान मेरी, दिल मेरा, गाड़ी  मेरी है
बचा लें,  भेड़ दें, उनको इससे क्या

कलम मेरी, मर्जी मेरी,बात मेरी है
चुप रहें, छेड़ दें, उनको  इससे क्या 
                  गिरिराज भंडारी





Friday 22 February 2013

आंकड़ों से आइये रोटी बनाएं हम

  आंकड़ों से आइये  रोटी  बनाएं हम
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आइये   आंकड़ों  से  रोटी  बनाएं  हम
आंकड़ो की दाल-सब्जियां पकाएं हम 
                     आंकड़ों से आइये  रोटी बनाएं हम
खाली खाली थालियाँ, कटोरियां
खाली गिलास पेट में सजाएं हम । 
                    आंकड़ों से आइये  रोटी  बनाएं हम
आंकड़ों की हो ज़मीन, आंकड़ों के बीज हों

आंकड़े हल-बैल हों,आंकड़े मजदूर हों
                     आंकड़ों से आइये रोटी  बनाएं हम
आंकड़ा ही खेत हो,आकड़ा ही खाद हो
आंकड़ो की धार से पानी पिलायें हम
                      आंकड़ों से आइये  रोटी  बनाएं हम
आंकड़े खलिहान हों,आंकड़े दरबान हों
आदमी भूखा मरे,आंकड़े  बलवान हों
                        आंकड़ों से आइये  रोटी  बनाएं हम
आंकड़े है देवता,आंकड़े है धूप- दीप
आंकड़े कपूर हो,प्रसाद भी हो आंकड़ा
                         आंकड़ा को आंकड़ा ऐसे चढ़ायें हम 
आंकड़ो खेल हो,आंकड़ों का मेल हो
दिया आंकड़ों का हो,आंकड़ो तेल हो 
                         अंधेर महंगाई  का  ऐसे जलाएं हम
                 
                              चलो आंकड़े की फसल  उगायें  हम
                              आंकड़ों से आइये  रोटी  बनाएं हम
                                      गिरिराज भंडारी
                          

Thursday 14 February 2013


        लघु कथा-" सड़ांध "


जैसे ही ट्रेन प्लेटफॉर्म में रुकी,मैंने जल्दी से अपना बैग उठाया और नीचे उतरा । मन में हड़बड़ी थी,आधी रात का समय और ये स्टेशन भी छोटा सा था। मन में शंका थी कहीं कोई रिक्शा तांगा नही मिला तो घर पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। खैर बाहर निकला तो शंका निर्मूल साबित हुई,किस्मत अच्छी। एक मात्र तांगा सवारी के इन्तिज़ार में खड़ा हुआ था। मैं जल्दी जल्दी क़दम बढ़ाया ताकि पीछे आने वाली सवारी से पहले मैं तांगा लेलूँ ।
मोल भाव किये बगैर मैं धम्म से तांगे में  बैठा और बोला, चलो!!रस्ते में पता बताता हूँ । तांगा चलने के बाद मैं निश्चिन्त हुआ । तब अचानक मैं महसूस किया की तेज़ बदबू मेरी नाक में घुसे जा रही है। मैंने सोचा आसपास कोई गन्दा नाला या घूरा होगा थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो साफ़ हवा मिलेगी। परन्तु सड़ांध से पीछा नही छूटा ।तब विचार आया  कि तांगे वाला तांगा साफ़ नही करता शायद,वर्षों पुरानी सीट है सड़ गई होगी या मुझसे पहले वाली सवारी ने शायद सीट में कुछ गिरा दिया हो। अँधेरे में कुछ समझना,खोजना कठिन था।  मजबूरी थी ,जेब से रुमाल निकाल कर मैं  नाक में रख के बैठा रहा।मन ही मन कोसता रहा , एक मात्र  तांगा न होता तो बीच रस्ते में छोड़ देता। लग रहा था जल्द से जल्द घर पहुचूँ तो पीछा छूटे।  खैर भाई किसी तरह मैं घर पहुंचा आशा के अनुरूप सामने दरवाज़ा खोल के पत्नी और मेरा लड़का इन्तिज़ार करते मिले।मन ही मन मोबाईल को धन्यवाद् कहा,ये न होता तो दरवाज़ा खुलवाना आधी रत को मुश्किल होता। पैसे दे कर बैग ले कर मैं   गेट की ओर बढ़ा तो  लड़का उधर से पापा कहते हुए दौड़ा,पास पहुँच के जैसे ही पैर पड़ने के लिए झुका वैसे ही पीछे हट गया औरपीछे पलट कर बोला माँ ! पानी ले कर आओ पापा के जूते में गन्दा लगा है,कहाँ से खूंद के आ रहे है, बहुत गंदी  बास आ रही है । मैं आवाक रह गया और रस्ते भर आये विचारों पर अन्दर कहीं शर्मिन्दा होता रहा। 
                                                                                                                                   गिरिराज भंडारी  

Tuesday 12 February 2013

उत्साह दिख रहा है,लगता वो मौसमी है

उत्साह दिख रहा है,लगता वो मौसमी है
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आसमां अलग है, और अलग जमीं  है
मिलते नहीं हैं  दोनों,ये आँख की कमी है 

रात  के  दामन में ज़ुर्म वही है, फ़िर 
सुबह के माथे में फिर वैसी ही ग़मी है

जब से आरजू की आरजू है  दिल में
तब  से  तारी  कोई  जैसे   बरहमी  है          बरहमी-खिन्नता,

जानने को है क्या हँसी की सचाई में 
झांकती आँखों में देखी अभी नमी  है

आदर्श जो  सजे हैं  आलमारियों   में
झाड़ पोंछ कर ले, कुछ धूल सी जमी है  

परहेज़ आप इनसे करते हों न करते हों 
जो आज चल रही हैं हवायें, पश्छिमी है

थोड़ा सी और जान डालिए,अभी तो   
उत्साह दिख रहा है,लगता वो मौसमी है
                       गिरिराज भंडारी 

Sunday 10 February 2013

अपने घर में सूकून पाए हम

अपने घर में  सूकून  पाए हम
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क्या कभी ख़ुद से भी कर पाए हम?        
काम पुरखों के ही गिनाये हम

ता कि हों जाए दया के लायक 
ख़ुदी को इस क़दर गिराएं हम ?                                                

खूब देखी है रौनक़े दुनिया 
अपने घर में  सूकून  पाए हम 

महफ़िल, वो न रास आई हमें 
बेवज़ह कैसे  मुस्कुरायें हम

ज़िद पे दिल आज मेरा फिर है 
चल वही गीत गुनगुनाये हम   

सारी दुनिया की फ़िक्र करते रहे  
इस तरह ख़ुद से  दूर आये हम 


सच से मुह कब तलक छिपायेंगे                                     
क्यूँ न अब हौसला दिखाएँ हम  
          
                  गिरिराज भंडारी 


 
  

















  




 

 




                      

Saturday 9 February 2013

कहां की चीज़ थी,मैंने कहाँ रख दी?

कहां की चीज़ थी,मैंने  कहाँ रख दी?
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कुछ  सोच  कर मैंने  भी हाँ रख दी,
कहां की चीज़ थी,मैंने  कहाँ रख दी?

वो ले जाये, जिसमें भी हिम्मत  है,
लो  मैंने हर चीज़  दरमियाँ रख दी।

वो गूंगे हैं, बदले में चंद  सिक्कों के,
मुंह बंद  किये,गिरवी  ज़ुबां रख दी।

मैं  भी लाया था जवाब  में कुछ,वो
तुहमतें, लानतें कहाँ  कहाँ रख दी|

ता कि,वो काट दें मेरी  दलीलों को,
उन्होंने सामने आहो  फुगाँ रख दी।

कभी तो टूटे कहीं से चुप्पी, उसने ,
सामने मेरे,सारी कहानियाँ रख दी 
                               गिरिराज भंडारी



 






Thursday 7 February 2013

बुनियादें फिर से हिल न जाये कहीं

दरारें,  घर  न   लील    जाये     कहीं,
बुनियादें फिर से  हिल न जाये कहीं।
आग, पानी से   मिल  न जाये  कहीं 
कोई  सूरत   निकल  न  जाये  कहीं।
फ़िर  वही    शोर,  वही   साजिश  है,
लोग  फ़िर से  बहल  न  जाये  कहीं।
अब न  लक्ष्मण, न  उसकी  रेखा है,
हदें, हया  से, पिघल  न  जाये  कहीं।
झूठ  ने   मुँह   बहुत    बड़ा    खोला,
वो  सारा सच  निगल न जाये  कहीं।
सियासी    रास्तों   में  फिसलन   है,
पाँव, देखो  फिसल   न  जाये   कहीं ।
दबा रखें   है ,पर अभी भुलाया नहीं,
मसला फिर से उछल न जाये कहीं।
माहौल  बन   रहा  है,  बदले   कुछ,
माहौल खुद ही, बदल न जाये कहीं।


गिरिराज भंडारी,भिलाई,सेक्टर,4  
   
 







  

Tuesday 5 February 2013

तारीक़ियाँ ख़ुद जल के,सही रास्ता दिखाती हैं



जब भी मिलती है तो,वो नाम क्यों सुझाती है?
क्या कीजिए उन्हें, कि हया भी नहीं  आती है?

राह  भटकों  में  मेंरा  नाम  ना जोडें , कि मुझे,
तारीक़ियाँ ख़ुद जल के,सही रास्ता दिखाती हैं।

जादू बाक़ी है कुछ, अभी भी  इन  फ़िजाओं में,
ये  गुनगुनाती  हवाएं  भी गीत  वही  गाती है।

तमन्ना   है  दिल  में , देखूँ  तो कैसे  लगती है,
किसी की  ज़िन्दगी  जब खुल के मुस्कुराती है।

फ़िर उसी उम्मीद के ज़ेरे असर  है दिल मेरा ,
फ़िर  सबा  उनका  ही,सलाम लिए आती है।




Monday 4 February 2013

हर एक सम्त का हंगामा, मगर कहता है

हर एक सम्त  का  हंगामा, मगर कहता  है
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चलो  मैं  चुप हुआ , ज़माना अगर कहता है,
हर एक सम्त  का  हंगामा, मगर कहता  है।                       सम्त-ओर
  
उनकी  दरिंदगी , बेदिली   के  अफ़साने  तो,
कट़  के  गिरा  हुआ हर  एक  सर  कहता है।

कितना भटका हूँ, तड़पा हूँ, ये न पूछो मुझसे
सहरा-ओ-दश्त का  हर एक शज़र  कहता है                         शज़र -पेड़

सर पे साया मेरे,उन हांथों का कुछ ऐसे पड़ा
मेरा  दुश्मन भी मुझे जाने जिगर कहता है।

ना प्यार,ना शिकवा , ना गुफ्तगू ना सुकूत ,                         सुकूत-शांति
रहने  वाला मगर उसी को  ही घर कहत़ा है।

ह्क़्के   गुफ्तार  पे  पहरे  अगर  लगे   होंगे,                       
इधर जो  कह  न सका बात, उधर कहता है। 

ख़ुदा   बचाये  मुझे   ऐसे    ग़मगुसारों    से,                        
इब्तिदाई बात में जो अगर-मगर कहता है।                   इब्तिदाई---शुरुवाती   
                     *******
 ह्क़्के   गुफ्तार--बोलने का अधिकार
 ग़मगुसारों--दुःख में हाल पूछने वाले

                             गिरिराज भंडारी 

Saturday 2 February 2013

किसी को उदास देख कर

      किसी को उदास देख कर
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तनहाइयों  से  निबाह  मत  करना,
ख़ुद  की ख़ातिर गुनाह मत करना।

ख़याल  आते  हैं,  सताते हैं,   मगर 
चले भी जायेंगे,परवाह मत करना।
दुनिया देख के,हँसेगी,मज़ा लेलेगी,
दर्द  में   आह-आह    मत   करना।
गर्क़ बेड़ा किया,जिस ख्वाहिश  ने,
फिर  उसी  की  चाह  मत  करना ।
जेह्नियत में ज़हर बुझाये फिरते हैं , जेह्नियत= धारणा,विचार 
उनसे बस रस्मोराह  मत  करना।
मौक़े बहुत है, लम्बी  है  ज़िन्दगी,
तू  बस, उनको तबाह मत करना। 
      गिरिराज भंडारी  -3/2/2013