Thursday 23 January 2014

“ दाग “



 दाग “ 
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मूर्खता है ,
होली में रंगे कपड़ों से
दाग छुड़ाने की कोशिश ।
कोई कहता भी नहीं उसे
दाग दार ।
वो अलग हैं , दागियों से
वो होली के हैं । बस ,
स्वीकार करें , वैसे ही
अगर मजबूरियाँ हैं ,  पहन भी लें ।
दाग दार कहा ही
तब जाता है
जब , सारा कुछ हो उजला
और
दाग हों एक –दो
इंगित भी किया जाता है इसे ही ,
प्रयास भी किया जा ता है
छुड़ाने का ,
रहती हैं अपेक्षाएँ भी
दाग छुड़ा लिये जाने की ,
ताकि , हो सकें आप ,
निर्मल , बेदाग ,पवित्र ॥
ये तो शुभ सूचक है  
आनन्द का ,
खुशी का कारण है ।
मुझे प्राप्त हुआ , ये आनन्द
सौभाग्य से ,
कल भी , और पहले भी
बाटना चाहता हूँ  मै , देना चाहता हूँ
आपको भी ,
कहता हूँ , इसीलिये
आप सब से,
दो – एक दाग दिख रहे हैं
कपड़ों में आप के भी ॥ 
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॥ विडम्बना ॥



॥ विडम्बना ॥   
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समाज ,  
निर्जीव घर नही है
कंक्रीटों का ।
समूह है,
उनमे रहने वाले सजीवों का ।
और ये रहने वाले
चाहे हम हैं,
या ये, या वो ,
स्वयँ समस्या भी हैं
किसी हद तक ,
और समाधान भी हैं
उसी हद तक ।
चाहे कोई भी हो समस्या   
स्वीकार करें अगर हम
ईमानदारी से ।
दवायें तो हम खाते हैं
स्वयँ ,
ठीक होने के लिये
अपनी अपनी बीमारियों से
किंतु ,
ठीक करना चाहते हैं
दूसरों को ,
उन बुराइयों के लिये
जिसके श्रोत हैं , हम खुद ।
बस !
यही विडम्बना है ,
यही दूरी है ,
समस्या और समाधान के बीच ॥
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Saturday 27 July 2013

पर निजाम गूंगा और बहरा है

पर निजाम गूंगा और बहरा है
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जख़्म लगा जो बहुत गहरा है
पर निजाम गूंगा और बहरा है
और मरहम न लगा दे कोई
सोचिये, इस बात पे भी पहरा है
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              गिरिराज भंडारी

किसी के दर्द को सीने से लगा कर देखें




किसी के दर्द को सीने से लगा कर देखें
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किसी की चश्मे नम को पास से ज़रा देखें
किसी के दर्द को सीने से लगा कर देखें
कही पे मौत है , मातम है , दुख के आंसू है
सियासी रोटियां लाशों पे रख के ना सेकें
                  गिरिराज भंडारी
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क्या ये सच नही ?



क्या ये सच नही ?
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सब्ज़ी काटती मेरी पत्नी,
और , खालीपन मे ध्यान से देखता मैं
देखता हूँ ,
एक एक भिंडी को प्यार से धोते पोछते हुये
फिर एक एक करके छोटे छोटे तुकड़ों मे काटते हुये
फिर अचानक
एक भिंडी के ऊपरी हिस्से मे छेद दिख गया शायद
मेरी पत्त्नी को
मैने सोचा एक भिंडी खराब हो गई
लेकिन , नही
मेरी होशियार पत्नी ने
ऊपर से थोड़ा काटा
कटे हुये हिस्से को फेंक दिया
फिर ध्यान से बची भिंडी को देखा
शायद कुछ और हिस्सा खराब था
उसने थोड़ा और काटा और फेंक दिया 
फिर  तसल्ली की ,
बाक़ी भिंडी ठीक है कि नही ,
तसल्ली होने पर
काट के , सब्ज़ी बनाने के लिये रखी भिंडी मे मिला दिया !
मै मन ही मन बोला ,
वाह क्या बात है !!
पच्चीस पैसे की भिंडी को भी हम
कितने खयाल से ,ध्यान से सुधारते हैं  ,
प्यार के काटते है
जितना हिस्सा सड़ा है , उतना ही काट के अलग करते है ,
बाक़ी अच्छे हिस्से को स्वीकार कर लेते हैं ,
क़ाबिले तारीफ है !
लेकिन ,
अफसोस !! 
इंसानो के लिये कठोर हो जाते हैं
एक ग़लती दिखी नही
कि ,उसके पूरे व्यक्तित्व को काट के फेंक देते हैं
क्या  पच्चीस पैसे की भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी ?
                गिरिराज भंडारी