Monday 14 January 2013

ख़ुद चलें सम्भलते हुए।


             ख़ुद चलें सम्भलते हुए।


तू ये ना पूछ,दिखा दिन कहाँ पे ढलते हुए,
अभी तू देख वहीं चाँद को निकलते हुए।

तुम इन्तिज़ार करो रास्ता बन जाने का,
मै चला जाऊंगा,इन पत्थरों में चलते हुए।

ये वही सांप है,सब दूध पिलाये थे जिसे,
हरदम देखा है इसे केचुली बदलते हुए ।
                            

पहुँच के शीर्ष पर,क्या संवेदना मर जाती हैं?
हम ही क्यूँ देख पाए दर्द को पिघलते हुए?

रहबरों पे अब क्या देख कर यक़ीं लायें ,
हमसफ़र से कहो ख़ुद चलें सम्भलते हुए।
                    
                          गिरिराज भंडारी  
                          1A/35/सेक्टर 4,भिलाई 
 





No comments:

Post a Comment