Thursday, 3 January 2013

सत्य

 " सत्य, एक चिंतन "
किसे समझाओगे ?
कैसे समझाओगे ?
अपनी बातें जो सत्य है ।
मुझे विश्वास है,
किन्तु ,
अकेल है सत्य ।

वैसे भी सत्य चलता नहीं,
हाथ पैर दोनों से अपंग है ।
पड़ा हुआ है किसी बिस्तर पर,
सदियों से लाचार ।
टंगा हुआ है किसी खूंटे से,अकेला ।
निश्चल,किसी सहारे की तलाश में ।
क्यों की सत्य स्वयं नहीं चलता ,
जिया जाता है , जीता है इंसानों के भीतर
परन्तु ,
यहाँ !  अब  सच में सच नहीं जीता ।
जीता है तो बहुमत,
परन्तु, बहुमत हाथ पैर होता है,प्रजातंत्र का,

पोसक होता है प्रजा के सत्य का,

वही बहुमत गुलाम है, लूट तंत्र का ,
गुलाम् है झूठ का ,सड्यंत्र  का  ।
आज सत्य, बहुमत में नहीं है ,
आज बहुमत का सत्य है,
सत्य का बहुमत नहीं ।
अनवरत सदियों तक झूट की परतें नोचनी पड़ती है , अपने अंतस से ,
एकांत साधना करना पड़ता है , ता कि  मिले सत्य की एक झलक ।
सत्य सिद्दी है,
नितांत अकेले में किये गए साधना की ।
सत्य बहुमत से निर्धारित करने की वस्तु नहीं है
साधना -सिद्धि का परिणाम है ,प्रतिफल है , सत्य ,
इसलिए ,
सत्य को,सनातन सत्य को ,
बहुमत स्वीकार करे तो अच्छा है ।
बहुमत सत्य का निर्धारण करे ये दुखद है ।
मुझे दुःख है ,सच में ।।
और आपको ?

गिरिराज भंडारी


No comments:

Post a Comment