Thursday 14 February 2013


        लघु कथा-" सड़ांध "


जैसे ही ट्रेन प्लेटफॉर्म में रुकी,मैंने जल्दी से अपना बैग उठाया और नीचे उतरा । मन में हड़बड़ी थी,आधी रात का समय और ये स्टेशन भी छोटा सा था। मन में शंका थी कहीं कोई रिक्शा तांगा नही मिला तो घर पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। खैर बाहर निकला तो शंका निर्मूल साबित हुई,किस्मत अच्छी। एक मात्र तांगा सवारी के इन्तिज़ार में खड़ा हुआ था। मैं जल्दी जल्दी क़दम बढ़ाया ताकि पीछे आने वाली सवारी से पहले मैं तांगा लेलूँ ।
मोल भाव किये बगैर मैं धम्म से तांगे में  बैठा और बोला, चलो!!रस्ते में पता बताता हूँ । तांगा चलने के बाद मैं निश्चिन्त हुआ । तब अचानक मैं महसूस किया की तेज़ बदबू मेरी नाक में घुसे जा रही है। मैंने सोचा आसपास कोई गन्दा नाला या घूरा होगा थोड़ा आगे बढ़ेंगे तो साफ़ हवा मिलेगी। परन्तु सड़ांध से पीछा नही छूटा ।तब विचार आया  कि तांगे वाला तांगा साफ़ नही करता शायद,वर्षों पुरानी सीट है सड़ गई होगी या मुझसे पहले वाली सवारी ने शायद सीट में कुछ गिरा दिया हो। अँधेरे में कुछ समझना,खोजना कठिन था।  मजबूरी थी ,जेब से रुमाल निकाल कर मैं  नाक में रख के बैठा रहा।मन ही मन कोसता रहा , एक मात्र  तांगा न होता तो बीच रस्ते में छोड़ देता। लग रहा था जल्द से जल्द घर पहुचूँ तो पीछा छूटे।  खैर भाई किसी तरह मैं घर पहुंचा आशा के अनुरूप सामने दरवाज़ा खोल के पत्नी और मेरा लड़का इन्तिज़ार करते मिले।मन ही मन मोबाईल को धन्यवाद् कहा,ये न होता तो दरवाज़ा खुलवाना आधी रत को मुश्किल होता। पैसे दे कर बैग ले कर मैं   गेट की ओर बढ़ा तो  लड़का उधर से पापा कहते हुए दौड़ा,पास पहुँच के जैसे ही पैर पड़ने के लिए झुका वैसे ही पीछे हट गया औरपीछे पलट कर बोला माँ ! पानी ले कर आओ पापा के जूते में गन्दा लगा है,कहाँ से खूंद के आ रहे है, बहुत गंदी  बास आ रही है । मैं आवाक रह गया और रस्ते भर आये विचारों पर अन्दर कहीं शर्मिन्दा होता रहा। 
                                                                                                                                   गिरिराज भंडारी  

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