अपने घर में सूकून पाए हम
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क्या कभी ख़ुद से भी कर पाए हम?
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क्या कभी ख़ुद से भी कर पाए हम?
काम पुरखों के ही गिनाये हम
ता कि हों जाए दया के लायक
ख़ुदी को इस क़दर गिराएं हम ?
खूब देखी है रौनक़े दुनिया
अपने घर में सूकून पाए हम
महफ़िल, वो न रास आई हमें
बेवज़ह कैसे मुस्कुरायें हम
ज़िद पे दिल आज मेरा फिर है
चल वही गीत गुनगुनाये हम
सारी दुनिया की फ़िक्र करते रहे
इस तरह ख़ुद से दूर आये हम
सच से मुह कब तलक छिपायेंगे
क्यूँ न अब हौसला दिखाएँ हम
गिरिराज भंडारी
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