Sunday, 14 April 2013

कहीं पे आग लगी है धुंआ सा लगता है

कहीं पे  आग  लगी  है  धुंआ  सा  लगता  है
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ख़याली भीड़ में घिरा-घिरा सा लगता है 
खुद ही अपने से बेगाना हुआ सा लगता है 

घूम आया है वो सारा शहर बेख़ौफ़ मगर
तेरी गलियों में क्यूँ डरा-डरा सा लगता है 

खूब समझाया ज़िन्दगी ने तज़ुरबों से मुझे
दिल का कोना कभी सहमा हुआ सा लगता है

मुझे अंजाम, ग़मनाक फ़साने का हर इक
कभी घटा हुआ, कहा-सुना सा लगता है

काले बादल  जो उठे हैं, नहीं  बारिश के
कहीं पे आग लगी है, धुंआ सा लगता है

प्यास इस जगह क्यूं तेज़ हुए जाती है
कहीं छिपा हुआ, मुझको कुआँ सा लगता है

ऐसे बिगड़े हुए हालत, और उनके हाथों में
कोई मरहम है,वो भी झुनझुना सा लगता है
                                   गिरिराज  भंडारी
   







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