Sunday 14 April 2013

मैंने अपने घर का दरवाज़ा तोड़ दिया है

मैंने अपने घर का दरवाज़ा तोड़ दिया है
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चलो अच्छा हुआ
तुम्हारी खुशी तुम्हे मिल गई ,
मुझे भी खुशी है
कि तुम तो खुश हो,
मैं चाहता भी यही था,
तुम खुश रहो,
वैसे भी तुम्हें खिलखिलाता देख मैं  बहुत खुश होता था।
सो मैं खुश हूँ।

खैर जाने दो,इन बातों को,
मैं तनहा वैसे भी नही हूँ,
पहले तुम साथ थीं,
अब वो हसीन यादे हैं,
तुम तो वक़्त बेवक़्त कभी जुदा हो भी जाती थीं,
पर,
ये कमबख्त तो मुझे नींद में भी नही छोड़ते,
मैं खुश हूँ । तुम्हारी यादों के साथ ,

मैं वैसे भी बोलता कम था,
तुम न कहती थी,
कभी कभी तो बोला करो,
बहुत खामोश रहते हो,
मैं  मुस्कुरा दिया करता था,
अब कोई है ही नही बात करने के लिए
अब भी मैं चुप हूँ,
फ़र्क़ क्या हुआ,
कुछ भी नहीं,
मैं खुश हूँ ।

कुछ परेशानियाँ है, दुःख हैं,
वो तो पहले भी थीं,
हाँ,परिभाषायें बदल गई हैं,
कारण बदल गए हैं,
उससे निपटने का तरीक़ा बदल गया है,
इन सबके बावजूद जीना पहले भी पड़ता था,
अब भी जी रहा हूँ ,
मैं खुश हूँ ।

लेकिन,

मुझे ईश्वर पर भरोसा है, और
ईश्वरीय न्याय पर भी,इसलिए,
सोचता हूँ शायद कभी ऐसा भी हो,
कि,
तुम्हारा अंतर्मन कभी तुम्हे ऐसा कुछ कह दे,
कि,
दौड़ आओ वापस,
अपने इस पुरानी दुनिया में,
और कहीं ऐसा ना हो,
मैं आवारा,
अकेला भटकता रहूँ कहीं और,
बंद मिले दरवाज़े ,
इसलिये,
मैंने अपने घर का दरवाज़ा तोड़ दिया है।    
                                  गिरिरज भंडारी





   

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