Sunday, 14 April 2013

हल निकालने में हर कोई मसखरा है

हल निकालने में हर कोई मसखरा है
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ख़्वाब  देखता  हूँ  गुलशन  हरा-हरा है
हर फूल और पौधा लेकिन डरा  डरा है

अफ़सोस मेरे दोस्त,सवाल पर यही है
देश लाचारी से क्यों इस  क़दर भरा  है

सोचता रहता हूँ, तनहा कभी कभी  मैं  
देश का हर  सिक्का खोटा या  खरा  है

पहुंचा दिया कैसे मुकाम पे  हालत  ने
शंका से भर गया हूँ,यकीन  भी ज़रा है

इसकी टांग खींचे या उसकी टांग खींचे
इंसान सबके अंदर रहता मरा मरा है

है इतनी समस्यायें,हो बाढ़ जैसे आई
हल निकालने में हर कोई मसखरा है                             
                       गिरिराज भंडारी   




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