॥ विडम्बना ॥
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समाज ,
निर्जीव घर नही है
कंक्रीटों का ।
समूह है,
उनमे रहने वाले सजीवों का ।
और ये रहने वाले
चाहे हम हैं,
या ये, या वो ,
स्वयँ समस्या भी हैं
किसी हद तक ,
और समाधान भी हैं
उसी हद तक ।
चाहे कोई भी हो समस्या
स्वीकार करें अगर हम
ईमानदारी से ।
दवायें तो हम खाते हैं
स्वयँ ,
ठीक होने के लिये
अपनी अपनी बीमारियों से
किंतु ,
ठीक करना चाहते हैं
दूसरों को ,
उन बुराइयों के लिये
जिसके श्रोत हैं , हम खुद ।
बस !
यही विडम्बना है ,
यही दूरी है ,
समस्या और समाधान के बीच ॥
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