हंगामों से ही बहलने लगा है
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समा फिर से देखो बदलने लगा है
समन्दर का पानी उछ्लने लगा है
हर इक दिल डरा है,हर इक मन मे शंका
हर इक रूह से कुछ पिघलने लगा है
ज़बां पे है गाली, दिमागों मे ग़ुस्सा
हर कोई अब, हथेली मसलने लगा है
इंसान भारत का पहले कहां था
गिर के कहां तक फिसलने लगा है
निज़ामों से इस बार भी कुछ न होगा
यही सोच के दिल दहलने लगा है
मगर क्या करें, आज लोगों का मन फिर
हंगामों से ही बहलने लगा है
गिरिराज भंडारी