Thursday 31 January 2013

यादों को  सम्हालो मत , कभी बेहद सताती है,
ख़तम जो गीत हो चुके,उन्हें दोबारा से गाती है।
सब मुझसे पूछते हैं क्या हुआ,कैसे हुआ,बोलो,
कोई समझाये उनको भी,ये बात मेरी ज़ाती है।



छोड़िये पत्थरों को कहकशाँ न कीजिए


छोड़िये पत्थरों को कहकशाँ न कीजिए
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लफ़्ज़ों में नहीं आयेंगे, बयाँ  न कीजिए,
मेरी ख़ामोशी का  यूँ  दरमाँ न कीजिये।    

पोशीदगी  भी   ज़रूरी  है  रिश्तेदारी  में,
ऱाज  महफिल में तो, अयाँ न  कीजिये।

ये  कैसी तकल्लुफ़ है, कैसी रवादारी   है     
मुझे मेरे घर में तो, मेहमाँ  न  कीजिये।

उनकी  यादें  मुश्किल से  सोई  हैं  अभी,
कहीं भी जाइये, शोर  यहाँ  न  कीजिये।

ज़ख्म  पैरों  के  इस रास्ते से वाकिफ़ हैं,
छोड़िये,पत्थरों को कहकशाँ न कीजिए।   

सफ़रे ज़िन्दगी की,ज़ईफ़ी ही मंज़िल है,
खींच तान कर ख़ुद को जवाँ न कीजिए।

ख़ूब हल्ला है अभी तूफान का, समंदर में,
कश्ती अभी  साहिल से  रवाँ न कीजिए। 


                        गिरिराज भंडारी
दरमाँ=इलाज,  रवादारी=शिष्टाचार
कहकशाँ=आकाशगंगा,  ज़ईफ़ी=बुढापा

  



Wednesday 30 January 2013

ये कबूतर करामाती है, इसे बस पाल के रखना।

 ये कबूतर करामाती है, इसे बस पाल के रखना
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ये कबूतर करामाती है, इसे बस पाल के रखना।

तड़प ख़ुद रास्ता दिखाती है, सम्हाल  के  रखना,


इन  अंधेरों  से  लड़ना  दीयों को  ख़ूब   आता है,

बस दो-चार, चौखट पर, हमेशा बाल  के रखना।


सदियों से ज़माने की मुहब्बत  से खिलाफ़त है ,

ख़्वाबों में मिलेंगे हम ,नज़र से बोल के रखना ।

साहिल में खड़े रह कर समन्दर पार क्या होगा,

जो उड़ना है आसमाँ  में,परों को तोल के रखना।

सीधे रस्ते समझ आते नहीं है क्यूँ कर तुमको ?

अबस हर घड़ी ख़ुद को किसी जंजाल में रखना।

बदल चुकी  हैं मियारें, अभी चुन चुन के देखेंगे,

जो भी चीज़ रखना तू, बहुत कमाल के रखना।

कह ले तू ,जो जी चाहे,इजाज़त है तुझे लेकिन,

दिल खोल के  रखना,बिना  सवाल के  रखना।

मैं  तुम्हे चाहता हूँ ,
तुम आज जैसी भी हो,
स्वीकार करता हूँ तुम्हे
तुम्हारी तमाम अच्छाईयों के साथ
तुहारी हर कमजोरियों के साथ,
तुम्हे चाहता हूँ मैं आत्मा से
आत्मा तक, तुम्हारी
क्योंकि प्रेम का निवास आत्मा में ही है,
आत्मा की खुराक भी प्रेम ही है।
प्रेम से प्रेम तक
प्रेम को प्रेम से बस ...गिरिराज 10.22 बजे रात  

छोड़ दे बाँह मेरी , ख़ुद मुझे सम्हलने दे

छोड़ दे बाँह मेरी , ख़ुद  मुझे  सम्हलने दे
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इलाज-ओ -मुदावा  अभी  से ,  रहने   दे ,   मुदावा=उपचार 
ज़रा सा दर्द तो बढने  दे ,अभी  सहने  दे।

जो  मंज़ूर  है, बुलंद  सर  का  झुक जाना,
तो अंजुमन में मुझे , मेरी  बात  कहने दे।

तय है, कभी सड़ जाएयेगा  ठहरा   पानी,
किसी बहाने से, कभी तो  इसे  बहने  दे। 

तेरे मैख़ाने की  लग्ज़िश नहीं है ,ऐ साक़ी,  लग्ज़िश=लड़खड़ाना 
छोड़ दे बाँह मेरी , ख़ुद  मुझे  सम्हलने दे।

साथ चलते हुए , रस्ते बदल  भी  जाते हैं,
जब  तक  जो चले   साथ , उसे चलने दे।

ये  दिल प्यार समझने के कहाँ क़ाबिल है,
ग़मों  की गोद में कुछ और अभी पलने दे।  
   
खिज़ां की  क़ैद से मैं, बहार छीन लाया  हूँ,
अब बड़े शौक़ से,फ़ूलों को अभी खिलने  दे।
                                   गिरिराज भंडारी 


 

Tuesday 29 January 2013

कर के देखो ये हवन कुछ, और है

अंदर तक की ये जलन,कुछ  और है,
दिल को लगी ये चुभन,कुछ  और है।
कल कही थी बात, वो कुछ  और थी,
कांटी छांटी ये  कथन, कुछ   और है।
कुछ  भला  परिणाम  आएगा ज़रुर,
हर तरफ़ लगी लगन, कुछ  और है।
प्रकृति का हर दृश्य कुछ सिखा रहा,
नागों भरा, संदली वन, कुछ और है।
नगर- नगर, हर डगर,  देखा असर,
अब के जो लगी अगन,कुछ और है।
गर्त   में  जाती  दिखी  है   सभ्यता,
अब हवाओं  में  चलन कुछ और है।
ख़ुद के अन्दर भस्म कर कुरीतियाँ,
कर  के  देखो ये हवन कुछ, और है।
हर नदी,तालाब,सागर,जल ही जल,
इस देश में गंगो-जमन कुछ और है।
पर देश के  नक़्क़ाल, वहाँ पर  सुनो,
आबो-हवा,रहन-सहन कुछ और है।
                      गिरिराज भंडारी
  

Monday 28 January 2013

फ़िर कमी दिख रही, अकुलाहट में

फ़िर कमी दिख रही, अकुलाहट  में
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अब हम  ना आयेंगे  तेरी  चौखट में,
तू चाहे हर चीज़ देदे, हमें  फ़ोकट में।
भीड़  प्रायोजित  ना  रही  हो  शायद ,
कुछ  भी वो बोले नहीं  घबराहट  में।
हे भगवान ! मैं ही  ग़लत  हो  जाऊं,
फ़िर कमी दिख रही, अकुलाहट  में।
दरवाजे अब खोलनाहै,चुन चुन  कर,
फ़र्क  कर  कर  के  सभी  आहट  में।                                
पेट फिर किसी ने, भर  दिया शायद,
पहले सा  वो ग़ुस्सा नही गुर्राहट  में।
बचा रखे थे कभी,आपदा प्रबंधन को,
वो सारे ख़र्च हुए, बाहरी  सजावट में।
थाने  से  बढ़ी  बात   अदालत   गई ,
जाने क्या पा गये,मेरी मुस्कराहट में    
                    गिरिराज भंडारी

Sunday 27 January 2013

चलो अच्छाई खोजें सौ- सौ खोट में


चलो  अच्छाई  खोजें सौ- सौ  खोट में
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कुछ  बंधी बंधाई प्रतिशत वाले  रेट में,
सबकी  खुशियाँ  और उन्नति पेट  में।

नाटक  बाजी, दौड़ा- भागी,  फ़िर होंगी,
फिर छोटी मछली आजायेंगी लपेट में।

घूम फिर के फिर से रिश्ते निकल गए,
चलो  अच्छाई  खोजें सौ- सौ  खोट में।

हम  इंसा हैं, ये  दावा अब  मत करना,
तुम नहीं जानते,बदल चुके हो वोट में।

कुछ भविष्य भारत  का भूखा  नंगा है,
बाक़ी  घूम  रहे हैं  सिरफ़   लंगोट  में।

जनता  बैलागाड़ी  तक  फिर लौट गयी,
आप  घूमिये  हेलीकाफ्टर में, जेट में ।                       

कुछ  ग़लती हम सबकी है  ये  मानेंगे,
क्यूँ  ऐसे   पहरेदार   बिठाए  गेट  में ।

अन्दर से जग जाओ,और हुंकार भरो,
बहुत  कमी  है  लगने  वाली चोट  में।
                     
                        गिरिराज भंडारी 
  
    






ज़र्रे ज़र्रे में दिखते हैं,जतन आपके

ये सारा जहाँ, और ये वतन आपके,
दश्तो दरिया और ये चमन आपके।---दश्त =जंगल
ये ऐशो आराम,औरये खुशी आपकी,
ये शीतल पवन,ये वातावरन आपके ।
इज्ज़त आपकी है, शोहरत आपकी ,
हम तो हैं,बरबाद-ए-वतन  आपके ।
ये सुरक्षा, ये  ऊँची  दीवारें  आपकी,
ज़र्रे ज़र्रे में दिखते हैं,जतन आपके ।
ये रस्ते, ये गलियाँ, ये नगर,आपके
इन शहरों के हर इक भवन आपके
तहरीर आपकी   ये  जुबां  आपकी,  तहरीर=लेख  
महफ़िल आपकी,अंजुमन आपके।
ख़ुद अपने लिए जो सिले थे कभी,
दिए आज से, सब  कफन आपके 
                 गिरिराज भंडारी
 

  
,

Saturday 26 January 2013

खोजिये तो ऎसी फ़ितरत कौन सबको दे गया?

खोजिये तो  ऎसी फ़ितरत कौन सबको दे गया?
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शब्द सारे जो  खरीदा, वो   मौन  उनको  दे  गया,
सोचिये तो  इतनी क़ीमत कौन  उनको  दे गया ?

इस जगह से उस जगह तक, हर जगह पाई गई,
जांचिये तो इतनी  दौलत  कौन  उनको  दे गया ?

इस शहर में , ये उदासी ,थी तो कभी पहले  नहीं,
जानिये तो,फ़िर ये ग़ुरबत कौन किसको दे गया ?

हर कोई डरा डरा ,सहमा  हुआ  सा है   हर नगर,
देखिये तो  ऐसी  दहशत  कौन  इनको  दे  गया ?

लूट इतनी, झूट इतने,औ  भ्रष्टाचारी  इस क़दर,
खोजिये तो  ऎसी फ़ितरत कौन सबको दे गया ?

जिस क़दर ये देश फिसला है,सभी चिंतित लगे,
रोकिये अब ,ऐसी हालत  कौन हमको  दे  गया ?
                                           गिरिराज भंडारी 

Friday 25 January 2013

सब को गणतंत्र दिवस की बधाई 

ओ आज़ादी के शहीदों ओ सारे नेक नाम,
झुकी हुई नज़रों से आप सब को सलाम।
               हम चिंतित भी  है क्यूँ  कि --


सच में कुछ देने का ईरादा नहीं है क्या?
दे देते हैं बयान वो ज्य़ादा नही है क्या?

घोषणाएं,पत्र  के अधूरे  हैं, सब, तो फ़िर,
सोचो की ये तोड़ा गया वादा नहीं है क्या

खर्च  करें, फिर  कमाए, फ़ायेदे के साथ,
इस तर्ज़ में जोभी करें,धंधा नहीं है क्या?
 
हम क्या कहें,कैसे कहें,में रोक टोक क्यूँ ,
हमारी आज़ादी में ये बाधा नहीं है क्या?

जंग-ए-आजादी में जो कुर्बां हुए शहीद,
ये हाल देश का,उन्हें सदमा नहीं है क्या?
                         गिरिराज भण्डारी




ये हाल देश का,उन्हें सदमा नहीं है क्या?

सच में कुछ देने का ईरादा नहीं है क्या?
दे देते हैं बयान वो ज्य़ादा नही है क्या?

घोषणाएं,पत्र  के अधूरे  हैं, सब, तो फ़िर,
सोचो की ये तोड़ा गया वादा नहीं है क्या

खर्च  करें, फिर  कमाए, फ़ायेदे के साथ,
इस तर्ज़ में जोभी करें,धंधा नहीं है क्या?
 
हम क्या कहें,कैसे कहें,में रोक टोक क्यूँ ,
हमारी आज़ादी में ये बाधा नहीं है क्या?

जंग-ए-आजादी में जो कुर्बां हुए शहीद,
ये हाल देश का,उन्हें सदमा नहीं है क्या?
                         गिरिराज भण्डारी












हर काम सही है,अगर अंजाम सही है

"हर काम सही है,अगर अंजाम सही है"

नंगों को  मिले कपड़े तो ये काम सही है ,
हमसे अगर छीनोगे तो,कोहराम सही है।

कल उन्हें ग़लती का एहसास भी होगा,
जो  कह रहें हैं फ़ैसला हर दाम सही है।

आगाज़ की रंगीनियाँ ख़ुद चीख़ रही हैं,
हर काम सही है,अगर अंजाम सही है।

कुछ करते रहें बेहतर है,ख़ामोश न रहें,
ग़लतियाँ दोहराने से तो आराम सही है।

बेचैनियाँ सीने में लिए फिरते हो यारों,
सुबह  सही है  ना भाई , शाम सही  है।
                    गिरिराज भंडारी 



Wednesday 23 January 2013

हर जुर्म जुड़ता है,तुमसे या मुझसे

हर जुर्म जुड़ता है,तुमसे या मुझसे

उफ़ ये  कैसी गर्मी है,ये कैसी हवा है,
ज़मीन से आसमान तक जल रहा है।

आओ चल के देखें तो क्या माज़रा है,
है, ये आह  किसकी ? कैसी बद्दुवा है?

ये तय  है कि बेटा उसी का  है, यारों,
बड़े प्यार से,उसको जिसने  छुवा है।

असमंजस में हैं सब,क्यों न जलाएं,
नई सोच का,वो जो अपना दिया है।

हर जुर्म जुड़ता है,तुमसे या मुझसे,
इसने  किया है  या  उसने किया है।

जा  कर ज़रा  पास   देखें तो  जाने,
मर-मर के दुनिया में कैसे जिया है।

सीमाए तोड़े न,अन्दर  की हलचल,
कमज़ोर  टांके  हैं,जिसने सिया है।         
                      गिरिराज भंडारी


अस्तित्वहीन होते रिश्तों में डाह प्रबल है


शब्द मौन,तो अर्थ अधूरे, भाव सबल है,
अस्तित्वहीन होते रिश्तों में डाह प्रबल है।


अहंकार जितना फैलाये उतना उलझे,
खुद की खातिर भौतिकता की चाह प्रबल है।


लक्ष्य भेद में किसमे चूके,कितना भेदे,
किसको कितना दे पाए,परवाह प्रबल है।

मंज़िल पा जाएँ, जैसे भी,जीत नही है ,
जिस रस्ते से जीते हैं ,वो राह असल है।

ज़िन्दा हो तो,परिपर्तन को संभव मानो,
मुर्दा पत्थर के जैसे, क्यूँ कोई अचल है । 

कहीं हंसी है, कहीं ठहाके- ढ़ोल नगाड़े , 
कहीं उदासी बैठी जम के,आँख सजल है।

                       गिरिराज भंडारी 

प्रेम, विशुद्ध प्रेम,

प्रेम,
विशुद्ध प्रेम,
अपेक्षाओं से रहित,निःशर्त प्रेम 
आज तक अपरिभाषित है,मेरी समझ में
मैं  समझता हूँ,प्रेम अपरिभाषित ही रहे तो अच्छा ।
प्रेम को जिसने भी परिभाषित करने  की कोशिश की,विकृति आती गई ।
मैं  भी कोशिश नहीं कर रहा हूं
प्रेम परिभाषित नहीं किया जा सकता
बस जिया जा सकता है उससे भरे  रह कर।
महसूस किया जा सकता है, बताया नहीं जा सकता
गूंगे को गुड की तरह ,वो खा तो सकता है बता नही सकता।
मिठास से भर के भी,
हम में  से जितनो ने जिसे परिभाषित किया वो प्रेम था ही नहीं ।
वो और कुछ भी हो सकता है सिवाय प्रेम के ,
जैसे जंगल में खिले सुगन्धित फूल किसी का इन्तिज़ार नहीं करते,
सुगंध बिखेरने के लिए ,उसे सुगंध-पात्र की जरूरत नहीं है,
वह सुगंध से भरा है ,लुटाना उसकी प्रकृति है।
वैसे ही अगर हम प्रेम से भरे हैं तो उसे बिखेरना हमारी प्रकृति होनी चाहिए ,
चाहे प्रेम का पात्र  उपस्थित हो या ना हो,
बहता ही रहे हम में से,स्वतः,निः शर्त
चाहे बदले में कोई  कुछ भी दे ,प्रेम या तिरस्कार
क्यूंकि जहाँ प्रेम है कोई और भाव रह नही सकता ।
अन्य सभी भाव प्रेम की अनुपस्थिति मात्र हैं।
प्रेम ही एक मात्र  भाव है,पूरी प्रकृति में ।
प्रेम ही शाश्वत है,प्रेम ही उर्जा है ,जीवन है
                                गिरिराज भंडारी
       

भगवा आतंकवाद ---हमारे माननीय श्री गृह मंत्री जी ने एक बहुत ही निंदनीय बयान दिया था।और जैसा की होना ही चाहिए था,हर पार्टी की ओर से बयान का  विरोध हुआ। अपवाद रही कांग्रेस पार्टी ,और उसमे भी विशेष तौर पे स्वयं श्री गृह मंत्री जी और श्री दिग्विजय सिंग जी।बाद में कांग्रेस के प्रवक्ता का बयान आया,जिसमें उन्हॊने आतंकवाद  को रंगों से अलग बताया और अघोषित रूप से गृहमंत्री जी के बयान से काग्रेस को अलग कर लिया।अब सवाल ये है की क्या मंत्री जी और दिग्विजय सिंग जी कांग्रेसी नही हैं? या एक इतने बड़े  पब्लिक फिगर दो तरह से बयान  दे सकते है,एक कांग्रेसी के रूप में और  एक सामान्य आदमी के रूप में,एक देश के गृहमंत्री के रूप में और गैर कांग्रेसी सामान्य आदमी के रूप में । अगर दे सकते हैं तो पहले क्यूँ नहीं कहते कि मैं ये किस  रूप में दे रहा हूँ,ता कि आगे किसी प्रवक्ता को बयान से अलग होने की जरूरत ही न पड़े,और न ही बयानों का सही अर्थ समझाने की। क्यूँ कि मेरी समझ में जनता हर बयान का अर्थ खूब समझती है।हिंदी भाषा सुधारने की जरूरत जनता को नही है।
गिरिराज भंडारी ,भिलाई   
कोई  सागर  बसा   है,  नदी  की  आँखों  में,
ये   नदी   यूँ    ही   तो  बही    नहीं   जाती।
ख़ामोश है,  कुछ   कहती  नहीं  ज़माने  से,
ये  बातें ,  महफ़िल  में   कही  नही   जाती।
उमंगें हैं तरंगें  हैं , ख़्वाहिशे  जानिसारी  है,       ख़्वाहिशे  जानिसारी =जान देने की इच्छा
और   बेक़रारी  यूँ  कि,  सही   नहीं  जाती।
वो इनकार मुझपे हादसा से कम तो  न था,
फूटे बम तो ,कानों से सनसनी नहीं जाती।
बाद ए फ़ना की मुलाक़ातें भी मुमकिन हैं,
अनासिर बिखरते  हैं,रूहें  कहीं नहीं जाती।          अनासिर=पंच तत्व
बरसों से सर झुकाए,ख़ामोश सहे जाते हो,
क्या भीतर की कभी बुज़दिली नही जाती?
चाँद छिपता है बादलों में, कभी दिखता है,
मेरी छत से,पर ये चांदनी कहीं नहीं जाती।




  




Sunday 20 January 2013

लो फिर से ख़बर आई,
या यूँ कि ,लहर आई ।

दौड़े बहुत,पहुंचे नहीं,
अब होगी जग हंसाई ।

जब पैर टिके कब्र में,
तब सच की समझ आई।

मौक़ा मिला,पहुँच गए,
हर चौक, तमाशाई  ।

जोशीली बड़ी बात है,
पर आँख है घबराई ।

ख़ुद की जगह के लिए,
हर दिल है तमन्नाई।

जहर है तो,पिए ही क्यूँ ?
हमको समझ न आई,

कुछ आखरी लम्हे बचे ,
ये वक़्त है हरजाई ।

Saturday 19 January 2013

  साहिल की बात सुनो
छोड़ो भी, इतना मत सोचो, इस दिल की बात सुनो,
इधर-उधर अब भटको मत,बस दिल की बात सुनो।

इतनी टांग अड़ाओ मत  इन छोटी- छोटी बातों में,
तुम भी कह लो और कभी महफ़िल की बात सुनो।

मुझको सागर गर्जन तो इक आमंत्रण सा लगता है,
गर तुम्हें अभी  एहसास नही,साहिल की बात सुनो।

हैवान यहाँ परिभाषित क्यूँ है इंसानी कृत्यों में?
इस बदलाव के रस्ते में,मुश्किल की बात सुनो।

मजबूरी थी,देख-जान के हमने मख्खी निगली,
अब विकल्प है,तो क्यूँ तुम बातिल की बात सुनो?(झूठों)
                                 गिरिराज भंडारी








वो सर नहीं रहा

              वो सर नहीं रहा

जब से किसी से कोई भी चाहत नहीं रही,
तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही।
बेअसर फरियाद जब हुई , तो  ये  देखा ,
करते थे जिस यक़ीं से इबादत, नहीं रही
सर झुका,सितम सहे, वो सर नहीं रहा,
दुःख को सहेजने की वो आदत नहीं रही।
इस ख़स्ता हाल ने मुझे बेगाना कर दिया,
करते थे जिस यक़ीं की हिफ़ाजत,नहीं रही
एहसां गिनाते आपकी गर्दन अकड़ गई ,
इक  नज़र देखें ,उधर,ताक़त नहीं रही।
                    गिरिराज भंडारी     

उस पर यक़ीन रख।

उड़ने दो उन्हें आसमाँ में, तू ये  ज़मीन रख,
जिस पे खड़ा हुआ है तू,उस पर यक़ीन रख। 
फ़ुर्सत किसे है  झाँक के  अंदर की ख़बर ले ,
बाहर   को  झाड़ पोंछ के तू  बेहतरीन  रख ।
लम्हा जो अभी  बीता वो,  पुराना  हो गया,
समय  के साथ सोच  भी ताज़ा तरीन रख।
दाग़-धब्बे  छोड़, तुझे   हक़ है, ये  जान  ले,
तू  भी अपना नाम  बेशक, महज़बीन रख।







  

कौन कैसा क्यूँ है ये किसको पता है

कौन कैसा क्यूँ  है ये किसको पता  है
  
व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है,
कौन  कैसा  क्यूँ  है ये  किसको पता  है।
दानवों सा  इस  जगह  जो दिख रहा  है,
क्या पता  किस के  लिए  वो  देवता  है।
वो  लंग  सा  जो भंग  पैरों  पर  खड़ा है ,
गर  सहारा  हो  तो  वो   भी  दौड़ता  है।
अटल   पर्वत  सा,  नहीं है कोई  आदम,
वक़्त  आने  पर  स्वयं  को  मोड़ता  है।
प्रतिक्रिया  जो  कर सके  न , मानते हैं,
जैसा  किया  वैसा  यहीं  पर भोगता है।
एक ग़लती की थी  उसने  ज़िन्दगी में,
आज तक वो ज़िन्दगी को खीजता है।
उसकी खामोशी के कुछ तो मायने हैं,
जो  अपनी तन्हाई से घंटों बोलता है।
  

                    

  गिरिराग भंडारी 

कब से खड़ा हूँ रास्ता भूले हुए


 कब से खड़ा हूँ रास्ता भूले हुए


अपनी योजनाओं से हैं फूले हुए ,
दरअसल लंगड़े थे,वो लूले हुए।
अंधों की बस्ती में न जाने किस लिए,
कब से खड़ा हूँ रास्ता भूले हुए।
वो खेत,बागीचे,वो छाँव अमराई,
लुप्त सारे श्रावणी झूले हुए ।
माली से बचने,हर कली और फूल सब,
गुलाब की तरह से कटीले हुए।
कमज़ोर इरादे इधर पहले भी न थे ,
कुछ सोच के ये और हठीले हुए।
                  गिरिराज भंडारी 













छू कर,हिला कर,मैं पानी डाल कर देखा,
नींद टूटी नहीं , मैं  गला फाड़ कर देखा ।
सूरत आईने में  उभरी तो ऐसे घबराए ,
आइना रगड़  के,झाड़ झाड़ कर देखा ।
निष्कर्ष तक कब कोई  बहस पहुंचीहै?
कभी हारा  कभी पछाड़ कर देखा ।

Friday 18 January 2013

ख़ुद क़ातिल सर झुकाए बैठा है ।

 ख़ुद क़ातिल सर झुकाए बैठा है
अँधेरा सबकी पहचान खाए बैठा है ,
बाहर ही नहीं, अंदर समाये बैठा है ।
सुरक्षा आज फ़िर उसके जिम्मे है ,
जो सारी इंसानियत पचाए बैठा है ।
ख़ुदा हमको भी दिन वो दिखलाए ,
कि,ख़ुद क़ातिल सर झुकाए बैठा है ।
मेहमां सब साफ़ करके उठ भी गए
मेजबान बस, हिचकिचाए बैठा  हैं ।

Thursday 17 January 2013

बस ये आसमाँ और ज़मी बनी रहे।

ज़िन्दगी में कुछ तो कमी बनी रहे ,
ता कि रिश्तों की गरमी, बनी रहे ।

मेरी इस क़दर पूछ-परख होती रही,
ये ख़ुदा,सूरत अभी,मातमी बनी रहे।

बहुत उद्दंड हैं वो बाज नहीं आने के,
आखें लाल हों, भौवें तनी, बनी रहे।

लोग आयेंगे, रहेंगे, चले जायेंगे,
बस ये आसमाँ और ज़मी बनी रहे। 
                   गिरिराज भंडारी


Monday 14 January 2013

ये जड़ें ज़मीन छोड़ देती हैं।

 ये जड़ें ज़मीन छोड़ देती हैं
 ********************

धूप पसीना निचोड़ देती है,
 ठंड घुटने सिकोड़ देती है ।

पत्तियों को बड़ी शिकायत है,
ये जड़ें ज़मीन छोड़ देती हैं।

चर्चा मुद्दे पे जब भी आती है,
तड़प के राह मोड़ देती है ।

दर,खुले ही थे, कि ये देखा ,
हवाएं फिर से भेड़ देती हैं ।

बातें रहनुमाओं की सुन कर ,   
शर्म ख़ुद हाथ जोड़ देती है ।

हालात जैसे ही क़ाबू आता है,
यादें फ़िर से छेड़ देती हैं ।
            गिरिराज भंडारी

     






  

ख़ुद चलें सम्भलते हुए।


             ख़ुद चलें सम्भलते हुए।


तू ये ना पूछ,दिखा दिन कहाँ पे ढलते हुए,
अभी तू देख वहीं चाँद को निकलते हुए।

तुम इन्तिज़ार करो रास्ता बन जाने का,
मै चला जाऊंगा,इन पत्थरों में चलते हुए।

ये वही सांप है,सब दूध पिलाये थे जिसे,
हरदम देखा है इसे केचुली बदलते हुए ।
                            

पहुँच के शीर्ष पर,क्या संवेदना मर जाती हैं?
हम ही क्यूँ देख पाए दर्द को पिघलते हुए?

रहबरों पे अब क्या देख कर यक़ीं लायें ,
हमसफ़र से कहो ख़ुद चलें सम्भलते हुए।
                    
                          गिरिराज भंडारी  
                          1A/35/सेक्टर 4,भिलाई 
 





Friday 11 January 2013

प्रत्यक्ष गुनाहों में भी खुद का बचाव है।

प्रत्यक्ष गुनाहों में भी खुद का बचाव है


राजनीतियों में ये कैसा गिराव है ,
प्रत्यक्ष गुनाहों में भी खुद का बचाव है।
अल्ला-ओं-राम दोनों गले मिल रहे हैं पर।
उनका ये कहना है कि कि बेहद तनाव है।
मध्यम की समस्याएं तो अनछुई रहीं ,
हर योजना में निम्न-उच्च चुनाव है ।
दुश्मनी भी की, कभी  भूले नहीं उसूल ,
फिर पीठ में मेरे बताओ  कैसे घाव है?
हर चीज़ महंगी मिली इस दौर में मगर,
सस्ती हुई ज़िन्दगी का रोज़ भाव है।


            गिरिराज भंडारी
           1A /35/सेक्टर-4,भिलाई
         

Wednesday 9 January 2013

चलो कानून बदल दें,कि वो बौना निकला ।

चलो कानून बदल दें,कि वो बौना निकला।
 बच न पाए वो पिद्दा,जो सरगना निकला,
चलो कानून बदल दें,कि वो बौना निकला ।
कहाँ हैं वो,जो संस्कृति  का मान रखते थे?
सम्मान आज यहाँ  एक खिलौना निकला।
सुरक्षा देश की,अन्दर से हो कि बहार से ,
बड़ा दुःख है,कि इस देश में सपना निकला।
स्वतंत्र था जो मेरा मन,मुझे शत्रु सा लगा,
जो हुआ कैद तो देखा,मेरा अपना निकला।
                      गिरिराज भंडारी,भिलाई 




                                        



सहनशीलता-कायरता में थोड़ा ही फर्क है,
अगर पार हो गया है तो, बेडा ही गर्क है।

जीते जी अनुभव करो ,सहन करो इसे,
आम आदमी का ये  अजीब नर्क है।

उम्र के साथ गर समझ बढ़ी,तो ठीक है,
घटने को जो सही कहे,तो ये कुतर्क है 









Tuesday 8 January 2013

परिंदों से

परिंदों से 
आकाश भ्रमण करना चाहो तो ,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।

किसके बदले कौन मरा कब ?
सब अपनी ही मौत हैं मरते।
कब स्वर्ग दिखा दूजी आँखों से?
स्वयं तुम्हें  ही मरना होगा ।
आकाश भ्रमण करना चाहो तो,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।
हवा-हवा में झूठ है शामिल।
मक्कारी ,धोखेबाजी है ,
रक्षक -भक्षक मिल बैठे हैं,
अब हंस तुम्हें ही बनना होगा।
आकाश भ्रमण करना चाहो तो,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।
गरमी सर्दी या हो वर्षा रुत ,
हो नवतपा,शीतलहर  हो ।
या बादल फट पानी बरसे ,
पर, तोल तुम्हें ही उड़ना होगा ।
आकाश भ्रमण करना चाहो तो,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।
हर सुख की कीमत होती है ,
हर दुःख खातिर कोई दवा है।
वातावरण यदि विरुद्ध है,
परिवर्तन भी करना होगा।
आकाश भ्रमण करना चाहो तो,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।
शक्तिवान बनने की रौ में ,
अपनी कमियां मत झुठलाना।
फूंक-फांक कर देख-भाल कर ,
उथला-उथला भरना होगा ।
आकाश भ्रमण करना चाहो तो,स्वयं तुम्हें ही उड़ना होगा।

गिरिराज भंडारी
1A/35/सेक्टर 4/भिलाई
जिला दुर्ग-छत्तीसगढ़



Monday 7 January 2013

खुद को खरोंच कर देखें

   खुद को खरोंच कर देखें

खुद को खोदें ,और कोंच कर देखें,
भीतर झांके और सोच कर देखें ।

अब समय आ गया की जान ही लें,
चलो अब खुद को खरोंच कर देखें।

उथली  सम्वेदना  को गहरा लें,
खुद को हम भी तो नोंच कर देखें।

कैसे लड़ते  हैं  बाघ, घायल हो  ,
आज चलिये   दबोच कर देखें ।

खुद की प्रवृत्ति, जान कर के चलो,
खुद अपना नाम सोच कर देखें ।
              गिरिराज भंडारी
             1A/35/सेक्टर  4/भिलाई
             जिला दुर्ग-छत्तीसगढ़

 

Sunday 6 January 2013

खुद की धोती यूँ न खुद रुमाल कीजिये,
देश का नीचा  ना  कभी  भाल कीजिये।
वोट खातिर क्या  मैं   बयान दे दिया ?
ऐसे ही कभी खुद से ये सवाल कीजिये 

Saturday 5 January 2013

अब तो यारों बेक़रारी,बदहवासी आम है,
सबकी सुनो,अपनी कहोगे तो उबासी आम है।
आप भी सीखें कहीं से मुस्कुराहट ओढ़ना,
माथों पे बल,और आँखों में उदासी आम है।


 

Friday 4 January 2013

हमको तुम भड़काओ ना

           हमको तुम भड़काओ ना 

हम क्या पहने क्या न पहने हमको तो सिखलाओ ना,

ओंठ बहुत दिन सी ली हमने,मुह हमसे खुलवाओ ना।
लक्ष्मण रेखा तुम  ना  खींचो, रावण जैसे ना  बोलो,
कहीं किसी जंगल में जा कर सोच बदल के आओ ना ।
इधर उधर की बात करो ना,ठोस नतीजा दिखलाओ,
सस्ती बातें- झूठे  वादों, से हमको बहलाओ ना ।
जाने कितने वर्ष हो गए बस तुम ही आजाद हुए,
 कैसे उड़ते हैं आज परिंदे, हमको भी दिखलाओ ना।
चौखट से बहार आकर हम रास्तों में चिल्लायेंगे ,
पर्दे कान के फट जायेंगे,और हमको भड़काओ ना ।  

असला मौन कोने में पड़ा है

  असला मौन कोने में पड़ा है


 वज़न कंधों में सबके आ पड़ा है ,
 कितना बेरहम ,कितना बड़ा है ।
कोई भूखा है ठंडी में अकड़ते,
संसद में अभी ताला पड़ा है ।
सियासी रोटियां सिकने लगी है ,
तवा भी गर्म और काफ़ी बड़ा है।
सशंकित हूँ मै, कुछ उत्तर नहीं है ,
विचारों का अभी अंतर अड़ा  है ।
कहीं पे गिर न जाए सच हमारा,
वो जिसपे बैठा है, उल्टा घड़ा है ।
वो खा पाएंगे,इसमें शक मुझे है,
ये सच तो स्वाद में कड़वा बड़ा है।  
जिसपे था यकीं ये कारगर है ,
वो असला मौन कोने में पड़ा है।
                गिरिराज भंडारी
                1A /सड़क 35 /सेक्टर 4
                भिलाई ,जिला -दुर्ग (छ.ग.)                       

Thursday 3 January 2013

सत्य

 " सत्य, एक चिंतन "
किसे समझाओगे ?
कैसे समझाओगे ?
अपनी बातें जो सत्य है ।
मुझे विश्वास है,
किन्तु ,
अकेल है सत्य ।

वैसे भी सत्य चलता नहीं,
हाथ पैर दोनों से अपंग है ।
पड़ा हुआ है किसी बिस्तर पर,
सदियों से लाचार ।
टंगा हुआ है किसी खूंटे से,अकेला ।
निश्चल,किसी सहारे की तलाश में ।
क्यों की सत्य स्वयं नहीं चलता ,
जिया जाता है , जीता है इंसानों के भीतर
परन्तु ,
यहाँ !  अब  सच में सच नहीं जीता ।
जीता है तो बहुमत,
परन्तु, बहुमत हाथ पैर होता है,प्रजातंत्र का,

पोसक होता है प्रजा के सत्य का,

वही बहुमत गुलाम है, लूट तंत्र का ,
गुलाम् है झूठ का ,सड्यंत्र  का  ।
आज सत्य, बहुमत में नहीं है ,
आज बहुमत का सत्य है,
सत्य का बहुमत नहीं ।
अनवरत सदियों तक झूट की परतें नोचनी पड़ती है , अपने अंतस से ,
एकांत साधना करना पड़ता है , ता कि  मिले सत्य की एक झलक ।
सत्य सिद्दी है,
नितांत अकेले में किये गए साधना की ।
सत्य बहुमत से निर्धारित करने की वस्तु नहीं है
साधना -सिद्धि का परिणाम है ,प्रतिफल है , सत्य ,
इसलिए ,
सत्य को,सनातन सत्य को ,
बहुमत स्वीकार करे तो अच्छा है ।
बहुमत सत्य का निर्धारण करे ये दुखद है ।
मुझे दुःख है ,सच में ।।
और आपको ?

गिरिराज भंडारी


ग़ैरों को समझाता नहीं

   ग़ैरों को समझाता  नहीं 
मुस्कुराना बेवज़ह मुझको अभी  आता नहीं ,
अपनी तक़लीफों का विज्ञापन मुझे भाता नहीं।

आप खाएं या न खाएं ये है मर्ज़ी आप की ,
बेदिली से कुछ मिले तो मै कभी खता नहीं ।

रोक लेता है मुझे जागा  हुआ मेरा जमीर ,
इसलिए मैं आपके रस्तों  में चल पता नहीं ।

आप का सच आपको किस ठौर में पहुंचा गया ,
अच्छा-बुरा,अपना-पराया,कुछ समझ आता नहीं ।

मेरी उम्मीदों ने भी, है कुछ सबक़ मुझको दिया
सच में जो होता है वो,सच में नज़र आता नहीं ।

जो है यकीं तो वाह वा, है  बेयक़ीनी  वाह  वा ,
अपनों को ज़रूरी नहीं,ग़ैरों को समझाता नहीं ।

मौन में न जाने कितने गीत उभरे,छिप गए,
अप्रासंगिक प्रणय गीतों को कभी गाता  नहीं ।
 
                        गिरिराज भंडारी
                        1A /सड़क 35 /सेक्टर 4
                        भिलाई ,जिला -दुर्ग (छ.ग.)                       



Wednesday 2 January 2013

मैं सच कहूँगा

  मैं सच कहूँगा            
आँखे बंद कर के यूँ चादर ना तन लो ,
मैं सच कहूँगा आके सब मेरा बयां लो ।

प्रकाश आज भी वही सूरज भी वही है ,
आखें खुली रखने की एक शर्त मन लो ।

अकेले किसी के घर नहीं आते हैं,ये दोनों,
 दुख लंगड़ा,अंधी ख़ुशी ये बात जान लो।

 यूँ ही मिले से चीज़ की कीमत नहीं होती,
पाने के लिए भाई जी,कुछ तो थकान लो।

भीड़  में  तो  भीड़ का  हिस्सा  ही रहोगे ,
ऊँचे में जाके तुम कहीं अपना मचान लो ।

बिन मांगे तो खुदा भी कुछ देते नहीं यारों,
तुम भी कहो,गूंगे हो तो मेरी जुबान लो  ।
             
                         गिरिराज भंडारी
                        1A /सड़क 35 /सेक्टर 4
                        भिलाई ,जिला -दुर्ग (छ.ग.)

हर दिन नया घुमाव है

            हर दिन नया घुमाव है 
प्राप्त स्वाद खो चुके ,अप्राप्त से खिंचाव  है ,
अपनों से बेरुखी यहाँ ,गैरों का रख रखाव है ।

भूलना चाहूं भी तो ,हर घाव है हरा अभी ,
टीसता है हर घड़ी ,बाक़ी अभी रिसाव है ।

उथलों में कब रुक है वो, बह के दूर जा चुका,
गहरी ज़मी मिली जहाँ उस जगह जमाव  है ।

भाषा बड़ी तटस्थ थी,  हाव भाव संतुलित ,
आंखे बयान कर गयी,किस तरफ़ झुकाव है ।

चंचल बड़ी है ज़िंदगी,तय यहाँ कुछ भी नहीं,
 हर दिन है नए रास्ते,हर क्षण नया घुमाव है ।
                        गिरिराज भंडारी
                        1A /सड़क 35 /सेक्टर 4
                        भिलाई ,जिला -दुर्ग (छ.ग.)

बस आपसी सम्बन्ध है

                 


               


 बस आपसी सम्बन्ध है 

प्रवाह में है कुछ रुकावट या निकासी बंद है ,
या नदी तालाब सी है , इसलिए  दुर्गन्ध  है  ।

अब नियम से कुछ नहीं  होता है भाई जान लो ,
तुमने दिया,मैंने लिया बस आपसी सम्बन्ध है ।

शक्तिशाली ना समझ हैं,और समझ बेहोश है ,
अब पुकारे कौन किसको हर कोई अपंग  है ।

चाल कछुवे की तरह धीमी है रक्षा पंक्ति की,
और  भागा   जो लुटेरा   तीव्रतम   तुरंग  है  ।

हाथ जोढ़े गिडगिडाते आये थे चौखट में वो ,
बंद  फाटक हैं सभी के,ये सियासी रंग  है ।
                गिरिराज भण्डारी
                1A/35/सेक्टर 4
                भिलाई ,जिला- दुर्ग




Tuesday 1 January 2013

दामिनी को श्रद्धांजलि

                                
                                 
दामिनी को श्रद्धांजलि                  
मै हर एक दिल में छाला देखता हूँ ,                 
किसने  कैसे  सम्हाला  देखता हूँ |

कई   राणा, कई  हैं   लक्ष्मी बाई ,
सभी हाथों में भiला   देखता हूँ I

जगह वो , तू जहाँ  पाई गई थी,
वहां मैं इक शिवाला देखता हूँ I

दमक से दामिनी की  कल  बुनोगे,    
बहुत   मजबूत   जाला  देखता हूँ I

समय है ,जाग जाओ  पहरे दारों,
तुम्हारा   मुह  मै काला  देखता हूँ I

सियासत भूल के कुछ कर भी गुज़रो,
बना  सबको  निवाला  देखता हूँ I

अँधेरा हाँ बहुत गहरा था लेकिन ,
क्षितिज पर मै उजाला देखता हूँ I